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१ अक्तूबर, १९६९
२६ अगस्त, १९५३ की 'प्रेम'-संबंधी वार्त्ताके बारेमें
माताजी, यह 'प्रेम' की शक्ति जो आती है - बह कभी-कभी आती है, हम अनुभव करते हैं, सचमुच प्रेम करते हैं --, उसे हमेशा क्यों नहीं रख पाते?
तुम्हें उसे रख सकना चाहिये!
मेरा भी यहीं ख्याल है कि रख सकना चाहिये, परंतु यह हो नहीं पाता ।
मेरे बच्चे... वह हमेशा, हमेशा यहां रहता है । शरीर चाहे कुछ क्यों न कर रहा हो -- लोगोंसे मिल रहा हो, स्वयं अपने साथ व्यस्त हो या सो रहा हो -- वह हमेशा, हमेशा, हमेशा रहता है, सचेतन और गुंजायमान । मैं कहती हू : ''यह संभव है '' : यह एक तथ्य है । सिर्फ जरूरत इस बातकी है... । जो बात साधारणतया इसे रोकती है, वह यह है, कि अधिकतर लोगोंमें भौतिक चेतना बहुत धुंधली होती है; वह केवल अत्यन्त भौतिक आवश्यकताओं, कामनाओं, एकदम भौतिक प्रतिक्रियाओंसे बनी होती है, लेकिन जरूरत इस बातकी है कि कोषाणुओंमें भगवान्के लिये प्रेम जगाया जाय । एक बार वे भगवान्से प्रेम करने लगे' तो यह हमेशा, सारे समय, ऐसा रहता है, वह नहीं बदलता - वह फिर नहीं बदलता । वह किसी मानसिक या प्राणिक गतिसे बहुत अधिक स्थिर रहता है : वह ऐसा रहता है (माताजी दोनों मुट्ठियां कस लेती हैं), वह हिलता भी नहीं । कोषाणु हमेशा इस स्थितिमें रहते हैं, इस अवस्थामें, भगवान्के साथ प्रेममें । शरीरके साथ यह बहुत विलक्षण बात है कि वह एक बार कोई बात सीख लें तो उसे भूलता नहीं कोषाणु एक बार इसे सीख लें,
यह आत्म-निवेदन, भगवान्के प्रति समर्पण, इस आत्म-समर्पणकी आवश्यकता- को सीख लें तो उसे हमेशाके लिये सीख लेते हैं; वह चीज फिर नहीं डगमगाती । वह स्थायी रहती है, चौबीस घंटोंमें पूरे चौबीस घंटे । वह कभी रुकती नहीं, दिन-पर-दिन, विना रुके चलती जाती है और कोई परिवर्तन नहीं आता । अगर कुछ गड़बड़ भी हो जाय (दर्द या ऐसा ही कुछ और), तो पहली गति, हा, पहली गति यही होती है, सहज रूपसे आत्म-समर्पणकी, अपने-आपको दे देनेकी, उच्चतर चेतना हस्तक्षेप नहीं करती, यह सहज होती है, यह कोषाणुओंके अंदर बसी चेतना होती है । प्राण और मन अस्थिर होते है, इस भांति (टेडा-मेडा संकेत) । विशेष रूपसे, विशेष रूपसे प्राण सब प्रकारकी चीजोंमें रस लेता है ।
स्वभावत: दोनों अन्योन्याश्रित है : अहंकारका लोप होना चाहिये -- अहंकारके राज्यका अन्त होना चाहिये । लेकिन साधारणत: लोग समझते है कि भौतिक अहंकारको विलुप्त करना संभव नहीं है; न सिर्फ यह कि यह संभव है, यह किया जा चुका है और शरीर चल-फिर रहा है, उसका चलना-फिरना जारी है । वह गया नहीं है (एक बार कुछ कठिन समय आया था... बस, जरा-सा) ।
अब कोषाणुओंको आश्चर्य हो रहा है कि आराधनाकी गतिके बिना कैसे जिया जा सकता है । वे हर जगह, हर जगह ऐसे हैं (तीव्र अभीप्सा- की मुद्रा) । यह बहुत मजेदार है ।
वे सब पुरानी कठिनाइयां जो आन्तरिक विकासमें सामने आती हैं, प्राण और मनके साथ व्यवहार करते हुए जिनसे पाला पड़ता है, पुरानी चीजोंका फिरसे उठ खड़ा होना आदि, वे सब (इस शरीरसे) जा चुकी हैं । यह वैसा नहीं है ।
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